इंटरसेक्शनलजाति कल्पना सरोज: तय किया ‘दो रूपये से पांच सौ करोड़ तक का सफर’

कल्पना सरोज: तय किया ‘दो रूपये से पांच सौ करोड़ तक का सफर’

दलित महिला कल्पना सरोज ने दो रूपये से अपने जीवन की शुरुआत की और वह करोड़ों की कंपनी की सीइओ हैं| इस उपलब्धि के लिए कल्पना को पद्मश्री से सम्मानित किया गया।

भारत के उस गाँव में लड़कियों को जहर की पुड़िया कहा जाता था, जहां एक दलित परिवार में कल्पना सरोज का जन्म हुआ| दलित, गरीब और महिला होने के नाते उसने समाज के ऐसे वीभत्स पहलुओं को जिया जिसके कड़वे अनुभवों ने उसे कभी आत्महत्या करने को मजबूर कर दिया था| लेकिन समय का पहिया भला एक जगह कहाँ रुकता है! कल्पना सरोज ने दो रूपये से अपने जीवन की शुरुआत की और वह करोड़ों की कंपनी की सीइओ हैं| करोड़पति है और कामयाब कारोबार के शिखर में बैठकर वो जानेमाने कारोबारियों से कंधा मिलाती है|

महाराष्ट्र के अकोला जिले में एक छोटा-सा गांव रोपरखेड़ा है। वहीं एक दलित परिवार में कल्पना सरोज का जन्म हुआ। उनके पिता हवलदार थे। छोटे-से पुलिस क्वार्टर में कल्पना अपने माता-पिता, दो भाई, दो बहन, दादा-दादी और चाची के साथ रहती थीं। पिता के 300 रुपए के मासिक वेतन पर पूरे परिवार का खर्च चलता। कल्पना घर के पास ही सरकारी स्कूल में पढ़ने जाती थीं। जहां उन्हें दलित होने पर अपने शिक्षकों और सहपाठियों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता। शाम को स्कूल से लौटने के बाद उन्हें गोबर उठाने और खेतों का काम करने के साथ चूल्हे के लिए लकड़ी चुनने भी जाना पड़ता था।

कल्पना के गांव में लड़कियों को ‘जहर की पुड़िया’ कहा जाता था और उनसे निज़ात पाने के लिए लड़कियों की शादी छोटी उम्र में कर दी जाती थी। जब कल्पना 12 साल की थीं और सातवीं कक्षा में पढ़ती थीं, तब उनकी शादी उनसे उम्र में बड़े लड़के से करवा दी गई। शादी के बाद वे मुंबई चली गर्इं। वहां उनकी हालत दयनीय थी। एक इंटरव्यू में कल्पना जी ने कहा – मेरे ससुराल वाले मुझे खाना नहीं देते, बाल पकड़ कर बेरहमी से मारते, जानवरों से भी बुरा बर्ताव करते। कभी खाने में नमक को लेकर मार पड़ती, तो कभी कपड़े साफ ना धुलने पर धुनाई हो जाती।

उनकी हालत दिन-प्रतिदिन बदतर होती जा रही थी। एक दिन पिता उनसे मिलने आए। कल्पना की बुरी दशा देख कर उनको अपने साथ गांव लेकर चले गए, पर मायके में भी आस-पड़ोस और नाते-रिश्तेदारों के तानों ने उनका जीना मुश्किल कर दिया। एक दिन इन सबसे तंग आकर उन्होंने आत्महत्या करने की कोशिश की, लेकिन किस्मत को शायद कुछ और मंजूर था। उनकी जान बच गई। इसके बाद उन्होंने सोचा कि जब कुछ करके मरा जा सकता है, तो इससे अच्छा ये है कि कुछ करके जिया जाए।

फिर उन्होंने कई जगह नौकरी पाने की कोशिश की, लेकिन कम शिक्षा और छोटी उम्र की वजह से उन्हें कहीं काम नहीं मिल पाया। इसके बाद उन्होंने अपने चाचा के पास मुंबई जाने का फैसला किया। उन्होंने कल्पना जी को एक कपड़ा मिल में काम दिलवा दिया। वहां उन्हें धागा काटने के दो रुपए महीने मिलते थे। इसके बाद उन्होंने सिलाई-मशीन से काम शुरू किया, तो उनकी तनख्वाह बढ़ा कर सवा दो रुपए महीने कर दी गई।

इसी बीच उनके पिता की नौकरी किसी कारणवश छूट गई और उनका पूरा परिवार उनके साथ मुंबई रहने लगा। इस दौरान गरीबी के कारण वे अपनी बीमार बहन का इलाज नहीं करवा पाई और उसका देहांत हो गया। यह सब देख कर कल्पना ने गरीबी को अपने जीवन से मिटाने का निश्चय किया। उन्होंने अपने छोटे-से घर में कुछ सिलाई मशीनें लगवार्इं और 16-16 घंटे काम करना शुरू किया, लेकिन इससे उन्हें ज्यादा पैसे की बचत न हो पा रही थी। इसलिए उन्होंने अपना कारोबार शुरू करना चाहा, लेकिन इसके लिए बड़ी पूंजी की ज़रूरत थी। उन्होंने सरकार से पचास हज़ार रुपए का कर्ज लेने की योजना बनाई मगर बिचौलियों की धोखाधड़ी से तंग आकर उन्होंने कुछ लोगों के साथ मिल कर एक संगठन बनाया, जो लोगों को सरकारी योजनाओं के बारे में बताता था और कर्ज दिलाने में मदद करता था। धीरे-धीरे यह संगठन प्रसिद्ध हो गया। समाज के लिए निस्वार्थ भाव से काम करने के कारण कल्पना जी की पहचान कई बड़े लोगों से हो गई।

इसके बाद उन्होंने महाराष्ट्र सरकार की महात्मा ज्योतिबा फुले योजना के अंतर्गत पचास हजार रुपए का कर्ज लिया और 22 साल की उम्र में फर्नीचर का व्यापार शुरू किया। इसमें उन्हें काफी सफलता मिली और फिर कल्पना जी ने एक ब्यूटी पार्लर खोला। इसके बाद उन्होंने स्टील फर्नीचर के एक व्यापारी से विवाह कर लिया, पर वे 1989 में एक पुत्री और एक पुत्र का भार उन पर छोड़ इस दुनिया से चले गए। इसी बीच कल्पना को कमानी ट्यूब्स कंपनी (जो कि सत्रह सालों से बंद थी) के बारे में पता चला| सुप्रीम कोर्ट ने उसके कामगारों से काम शुरू करने को कहा था|

कंपनी के कामगार कल्पना से मिले और कंपनी को फिर से शुरू करने में मदद की अपील की। यह कंपनी कई विवादों के चलते 1988 से बंद पड़ी थी। कल्पना ने वर्करों के साथ मिलकर अथक मेहनत और हौसले के बल पर सत्रह सालों से बंद पड़ी कंपनी में जान फूंक दी| यह एक मुश्किल काम था, लेकिन उन्होंने नवीनीकरण करते हुए कंपनी की हालत बदल दी। वे कहती हैं, ‘मैं यहां काम करने वालों को न्याय दिलाना चाहती थी। मैं कर्मचारियों की स्थिति समझ सकती थी जो अपने परिवार के लिए भोजन जुटाना चाहते थे|’ आज कमानी ट्यूब्स 500 करोड़ रुपए से अधिक मूल्य की एक बढ़ती हुई कंपनी है।

इस उपलब्धि के लिए कल्पना को 2013 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। कोई बैंकिंग पृष्ठभूमि न होते हुए भी सरकार ने उन्हें भारतीय महिला बैंक के बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स में भी शामिल किया।

सन्दर्भ

कंट्रोल Z, पृ 54, स्वाती सिंह, प्रथम संस्करण 2016

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