इंटरसेक्शनलजेंडर औरत-मर्द की तुलना से सड़ने लगा है समाज

औरत-मर्द की तुलना से सड़ने लगा है समाज

मर्द-औरत में तुलना से समाज का संतुलन अपने आप बिगड़ने लगता है और लिंग भेदभाव, भ्रूणहत्या, असमान लिंगानुपात आदि पैदा होती हैं|

हाल ही में मुझे एक समूह में कमला भसीन के लिखे लेख ‘लड़का क्या है? लड़की क्या है?’ पर बातचीत सुनने का मौका मिला| ये अपने आप में बहुत ही संवेदनशील और वर्तमान में बहु-चर्चित विषय है| आये दिन कहीं न कहीं आपको भी इस विषय पर बुद्धिजीवी लोगों के विचार सुनने को मिल जाते हैं| इस चर्चा में उस समय सभी की आवाज़ अचानक आक्रामक हो गयी (जैसा कि अक्सर इस विषय पर होता है), जब एक प्रतिभागी ने कहा कि मर्द औरतों से शारीरिक शक्ति में कुछ ताकतवर होते हैं| उस व्यक्ति के कहने का मतलब भी कुछ इस तरह से ही सामने आया बस फिर क्या था सभी प्रतिभागी दो वर्गों में बंट गये| कुछ उसके समर्थन और कुछ विरोध में शामिल हो गये| और सभी ने इस विषय पर अपने-अपने तर्क रखना शुरू कर दिया| बड़ी मशक्कत के बाद संदर्भ व्यक्ति ने प्रतिभागियों को शांत किया|

दरअसल इसमें उनलोगों की भी कोई गलती नहीं है क्योंकि ये तुलना करने का रिवाज़ हमें हमारी शिक्षा-पद्धति और सामाजिक संरचना से मिला हुआ है|और ये इतना गहरा होता है कि हम हर जगह इसे लागू करने की कोशिश करते रहते हैं| वो भी बिना इसका परिणाम समझे| जोकि बाद में कहीं न कहीं कमतर-बेहतर या अच्छे-बुरे की तरफ हमें मोड़ देता है और हमें पता भी नहीं चलता ऐसा कब हो गया?

स्वतंत्र अस्तित्व वाले औरत-मर्द

अगर औरत और मर्द की बात की जाए तो वाकई में हैं तो दोनों मानव ही| पर हम गौर करें और देखें तो दोनों की स्वयं में एक स्वतंत्र पहचान और अस्तित्व है| दोनों मानव होते हुए भी कुछ मामलों में एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हैं जैसे; प्रजनन, शारीरिक बनावट, गुण और अन्य| इस लिहाज से यह भी सम्भव है कि कुछ गुण-धर्म मर्दों में हो सकते हैं जोकि औरतों में नहीं हैं और कुछ औरतों में हो सकते हैं जोकि मर्दों में नहीं हैं| इसलिए मैं इस बात का समर्थन करता हूँ कि जब दोनों मानव होते हुए भी कुछ मामलों में एक-दूसरे से अलग हैं तो दोनों में तुलना करना अविवेकपूर्ण है, खासकर तब जब तुलना नकारात्मक हो| वैसे तो तुलना करने की क्रिया अपने आप में ही मुझे दिक्कत भरी लगती है विशेषकर इस सन्दर्भ में जबकि दो स्वतंत्र, अलग जीवों, रूपों या अस्तित्वों में यह तुलना की जाय तो इसके बुरे नतीजे होने की गुंजाइश बहुत ज्यादा हो जाती है|

तुलना कहीं न कहीं दोनों लिंगों के बीच भेदभाव को बढ़ाने का काम कर रही है न कि कम करने का|

मौजूदा समय में हमारा समाज भी इसी तुलना का शिकार होता जा रहा है, जिसके परिणामस्वरूप हमारे कुछ विश्वासों ने जन्म लिया है जैसे- औरतें भारी काम नहीं कर सकती, औरतें शारीरिक रूप से कमज़ोर होती हैं, मर्द औरत से बेहतर होता है, वगैरह-वगैरह| तुलना की बात की जाए तो हम देखेंगे कि दोनों के लिए एक जैसे मापदंड होना भी अपने आप में दोनों के अस्तित्वों पर एक चोट के समान है|

तुलना के शिकार से सड़ता समाज

अगर आप एक तुलनाकार (जोकि तुलना करने की इच्छा रखता हो) के रूप में एक मर्द और औरत की ख़ूबसूरती की तुलना करना चाहें तो क्या आप उसके मापदंड समान रखेंगे? और अगर हाँ तो आपको इस बात को ज़रूर सोचना पड़ेगा कि ये कितना सही होगा? इस बात को एक उदाहरण के जरिए स्पष्ट करना चाहूँगा कि मान लीजिये कोई अविवेकपूर्ण व्यक्तित्व दोनों लिंगों की तुलना शारीरिक पीड़ा सहन करने की क्षमता के आधार पर करना चाहता है, तो शायद औरतें इसमें बेहतर बताई जा सकती हैं| क्योकिं कई सारी साइंटिफिक रिसर्च भी इस बात को साबित करती हैं कि प्रसव के दौरान औरत को होने वाली पीड़ा अन्य पीड़ाओं के मुकाबले बहुत अधिक तकलीफ़देय होती है| इसलिए मर्द अपने आप में इस तुलना में पिछड़ जायेंगे|

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इस उदाहरण में मैं दोनों लिंगों को उनके वास्तविक और प्राकृतिक अस्तित्व के रूप में ही शामिल करने की बात कर रहा हूँ क्योंकि हमारे समाज ने तो कभी मर्दों या लड़कों को अपने भाव और कष्ट उजागर करने की आज़ादी दी ही नहीं है| उन्हें तो बचपन से यह सिखा दिया जाता है कि ‘मर्द को दर्द नहीं होता’|

हम लड़का-लड़की और औरत-मर्द की बात करते हैं एवं उनमें तुलना करने की कोशिश करते हैं जिससे संतुलन अपने आप बिगड़ने लगता है|

आजकल अखबारों और न्यूज़ चैनलों में भी लड़का-लड़की की तुलना पर केंद्रित खबरों की हेडलाइन बनना शुरू हो गयी है| जैसे – ‘लड़कों को पीछे छोड़ लड़की ने एक बार फिर परीक्षा में टॉप किया’| गौरतलब है कि आखिर इस तरह की तुलना ने हमारे समाज में लड़कियों को लड़कों से पीछे कर दिया और अब हम लड़कियों के वजूद को उठाने के लिए इस तरह के हथकंडे अपना रहे हैं, जो पूरी तरह शोषक-शोषित के सिद्धांत को उल्टा करने की बात है| यानी कि समाज में बदलाव चाहे जो भी हो समानता की बजाय पीड़ितों का वर्ग ज़रूर होगा, फिर चाहे लड़के के रूप में या लड़की के रूप में|

कानून बनाने की नहीं सोच बदलने ज़रूरत

इस तरह की तुलना कहीं न कहीं दोनों लिंगों के बीच भेदभाव को बढ़ाने का काम कर रही है न कि कम करने का| हमें समझना होगा कि प्रकृति में मौजूद हर एक जीव, अपने आप में ख़ास है और उसका अपना एक अस्तित्व, गुण और सौन्दर्य है| आप कभी किसी तोते की मैना से तुलना नहीं करते जबकि दोनों हैं तो पक्षी| ऐसे कई और उदाहरणों से हम समझ सकते है कि हम जाने-अनजाने में मर्द और औरत के बीच किस तरह से एक तुलनाकार की भूमिका निभा रहे हैं और सामाजिक लिंग विभेद को और बढ़ावा दे रहे होते हैं|

ऐसे में बेहतर होगा कि हम समझ जाएँ कि प्रकृति के बनाए इन दोनों लिंगों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है| दोनों की आपस में तुलना करना विवेकहीन तो है ही साथ ही साथ एक ही मापदंड को लेकर दोनों की तुलना करना बहुत ही मूर्खतापूर्ण है|

प्रकृति के बनाएं इन दोनों लिंगों का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है|

क्योंकि जब हम लड़का-लड़की और औरत-मर्द की बात करते हैं और उनमें तुलना करने की कोशिश करते हैं तो इससे संतुलन अपने आप बिगड़ने लगता है और समाज में व्याप्त बुराइयां जैसे- लिंग भेदभाव, भ्रूणहत्या, असमान लिंगानुपात आदि पैदा होती हैं| जिससे हमारी सामाजिक व्यवस्था में सड़न पैदा होने लगी है| इसलिए इन सभी को दूर करने के लिए कानून बनाने के साथ-साथ खुद भी इन मुद्दों पर तर्कपूर्ण सोचने की जरूरत है| क्योकिं जब तक हम खुद प्रकृति के दिए गये उपहारों, उनके अस्तित्वों और पहचान को स्वतंत्र रूप से देखने और स्वीकार करने में सक्षम नहीं हो जाते तब तक इस तरह की तुलनाएं और भेदभाव हमारे समाज में होते रहेंगे|

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