इंटरसेक्शनलजेंडर लड़कियों के संघर्ष पर हावी पितृसत्ता की अधीनता

लड़कियों के संघर्ष पर हावी पितृसत्ता की अधीनता

हमारे समाज में यह मान्यता है कि महिलाओं के आर्थिक सहयोग से घर नहीं चलते| बल्कि घर तो मर्द की कमाई से ही चलते हैं। इसी सोच को लेकर उसका पति उसके ऊपर नौकरी छोड़ने का दवाब बनाने लगा।

एक महिला की पूरी जिंदगी हमेशा अधीनता में गुजरती है। जब एक लड़की छोटी होती है तो वो अपने पिता के अधीन होती है और जब वो किशोरावस्था में आती है तो भाई के अधीन और शादी के बाद अपने पति अधीन हो जाती है। इसके बाद जब वो मां बनती है तो बेटों की अधीनता में जिंदगी जीती है।

पितृसत्तात्मक सोच के कारण महिलाएं अपनी जिंदगी के छोटे-बड़े निर्णय खुद नहीं ले सकती है, जिसके चलते उन्हें अपनी खुशियों और सपनों का गला घोंट देना पड़ता है। महिलाओं को अपनी इच्छा से अपने सपने, पसन्द और नापसंद किसी भी तरह से कोई मायने नहीं रखती है, जो महिलाएँ इस अधीनता को स्वीकार ना करके अपने इच्छा से जीने की कोशिश करती भी है तो उनकी जिंदगी तीसरे विश्व युद्ध जैसी हो जाती है। ऐसी बहुत महिलाएँ है जिन्होंने अपने अधिकारों के लिए कड़े संघर्ष किये है और सामाजिक दवाब के कारण ऐसी महिलाओं का संघर्ष तब तक बढ़ता रहता है जब तक की वो अधीनता को स्वीकार नहीं कर लेती। अगर वो इसे स्वीकार नहीं करती तो उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता है। संघर्ष और अधीनता के इस युद्ध को हम महिलाओं व लड़कियों की एक सच्ची कहानी के माध्यम से समझने की कोशिश करेंगें जोकि बहुत महिलाओं से प्रेरित है।

पितृसत्तात्मक सोच के कारण महिलाएं अपनी जिंदगी के छोटे-बड़े निर्णय खुद नहीं ले सकती है, जिसके चलते उन्हें अपनी खुशियों और सपनों का गला घोंट देना पड़ता है।

एक लड़की जिसने कड़ी मेहनत और लगन से अपनी पढ़ाई पूरी करके नौकरी करना शुरू किया। अपनी पढ़ाई के दौरान भी उसकी समस्या कम नहीं थी| गरीबी से लेकर यौनिक-हिंसा तक हर तरह की समस्या से लड़कर वो नौकरी करने लगी थी। नौकरी करते हुए वो अपने सपनों और इच्छाओँ के लिए जगह बनाने लगी। जब-जब वो अपने लिए जीने की कोशिश करती तो उसके ऊपर पितृसत्ता के सवालों की बारिश शुरू हो जाती। एक लड़की जो अपने अधिकारों के दायरों को और ज्यादा बढ़ाने की कोशिश कर रही होती है तो समाज के सवालों की वजह से उतना नही बढ़ पाती जितना वो सोच रही थी। हमारे संविधान ने हम सभी को अधिकार दिए है ,लेकिन हमारा समाज उन अधिकारों को स्वीकार नहीं करता। एक बड़ा सवाल यह भी है कि क्या कोई भी समाज सविंधान से ऊपर है?

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जैसे-जैसे जिंदगी आगे बढ़ रही थी उसके दायरों और पितृसत्ता की नोंकझोक हर मोड़ पर हो रही थी। उसने अपनी जिंदगी में शादी ना करने का निर्णय लिया| लेकिन निर्णय लेने का अधिकार तो महिलाओं के पास होता ही नही है तो वो कैसे अपने निर्णय पर स्टैंड ले सकती थी। समाज और परिवार शादी के लिए बार-बार उसके ऊपर दवाब बनाने लगा| यहां तक की बातें उसके चरित्र को लेकर उठने लगी| हर कोई उससे एक ही सवाल पूछता कि ‘तुम शादी क्यों नही करना चाहती?’ इन सवालों का उसके पास ऐसा कोई जवाब नहीं था जिसको सुनकर सवाल बन्द हो जाते। कुछ महीने और साल वो अपने निर्णय पर कायम रही| लेकिन जब किसी का सहयोग नहीं मिला तो उसने हार मान ही ली और शादी करने के लिए मजबूर हो गई।

ऐसे में सवाल ये है कि अपनी शर्तों पर ज़िन्दगी जीने का अधिकार महिलाओं को क्यों नहीं है? आखिर क्यों शादी को ही जिदंगी के लक्ष्य के रूप में देखा जाता है? अब वो वक्त आ गया था जब उसके लिए लड़का देखा जाने लगा। उसके पास शादी के रिश्ते आने लगे थे वो लड़के से मिलने भी जाती थी। लेकिन अभी तक कोई भी लड़का उसे इस लायक नहीं मिला कि उसे वो अपने जीवन साथी के रूप में स्वीकार कर सके। उसके परिवार वाले भी अब परेशान होने लगे थे और दवाब बनाने लगे की किसी रिश्ते को तो स्वीकार कर ले। वो इस दवाब को ज्यादा दिन झेल नहीं सकी और एक रिश्ते के लिए बिना सोचे-समझे हाँ कर दी। यह वो पल था जब वह आत्मविश्वास और हिम्मत दोनों हार चुकी थी। लेकिन फिर भी उसने हिम्मत करके अपनी एक बात मनवाई कि वो शादी के बाद भी नौकरी करेगी।

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शादी के बाद उसका पति चाहता था कि पहला बच्चा जल्दी हो जाये| लेकिन वो बच्चा पैदा करना नहीं चाहती थी। आज के दौर में भी मातृत्व को ही महिला होने का प्रमाण मानकर महिलाओं को बच्चे पैदा करने पर मजबूर किया जाता है। यहाँ तक की एक महिला कितने बच्चे पैदा करेगी वो भी निर्णय उसके हाथ में नहीं है। जल्दी बच्चा पैदा करने के दवाब से वह दो-चार हो रही थी और अपने पति को समझाने के लिए रोज अलग-अलग तरीके इस्तेमाल कर रही थी। लेकिन उसका पति उसकी बात समझने को तैयार ही नहीं था|

एक महिला कितने बच्चे पैदा करेगी वो भी निर्णय उसके हाथ में नहीं है।

बच्चा पैदा करने के दवाब से अभी निकली ही नहीं थी कि अब बात उसकी नौकरी पर भी आ गई थी। पति को लगता था कि पत्नी का काम तो सिर्फ घर और बच्चो तक ही सीमित है। हमारे समाज में यह मान्यता है कि महिलाओं के आर्थिक सहयोग से घर नहीं चलते| बल्कि घर तो मर्द की कमाई से ही चलते हैं। इसी सोच को लेकर उसका पति उसके ऊपर नौकरी छोड़ने का दवाब बनाने लगा। यहाँ तक की उसके माता-पिता और रिश्तेदार भी चाहते थे कि वो नौकरी छोड़ दे और अब घर संभालें। इस तरह हमारे समाज में तमाम लड़कियों के संघर्ष और अधीनता की लड़ाई में ना जाने कितने ही सपने जलकर राख हो जाते है।

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तस्वीर साभार : blogs.dw

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