इंटरसेक्शनलजेंडर अधिकारों की दौड़ में किशोरावस्था के भयानक परिणाम

अधिकारों की दौड़ में किशोरावस्था के भयानक परिणाम

बेहद ज़रूरी है कि हम एकबार फिर आज़ादी, अधिकार और सशक्तिकरण के अपने मानकों पर गौर करें, खासकर तब जब हम ग्रामीण परिवेश में बात करते हैं|

मधु (बदला हुआ नाम) बनारस के पास के एक गाँव की रहने वाली है| उसके पिता किसान है| घर में माँ और उसका एक बड़ा भाई भी है| लेकिन मधु की कहानी सिर्फ इतनी ही नहीं है| बारह साल की उम्र में मधु ने बच्चे को जन्म दिया| स्कूल जाने के दौरान मधु को अट्ठारह साल के राहुल (बदला हुआ नाम) से प्यार हुआ और उन दोनों के बीच शारीरिक संबंध बना| मधु के गर्भवती होने का पता छठवें महीने चला, जिसमें उसका गर्भसमापन भी संभव नहीं था| मौजूदा समय में राहुल जेल में है और नाबालिग लड़की के साथ संबंध बनाने के जुल्म में सज़ा काट रहा है| वहीं मधु अपने माता-पिता के घर में अपने बच्चे के साथ है| अब वो स्कूल नहीं जाती| न ही उसे अब पढ़ने की इच्छा है| आसपास वाले उसे गंदी नज़रों से देखते हैं और माता-पिता को हर दूसरे से बेटी को लेकर ताने सुनने को मिलते हैं|

वहीं दूसरी तरफ, अट्ठारह साल की प्रिया (बदला हुआ नाम) कुंडरिया गाँव, आराजी लाइन ब्लॉक वाराणसी की रहने वाली है| बारहवीं में पढ़ने वाली प्रिया को अपनी दुगुनी उम्र के रमेश (बदला हुआ नाम) से प्यार हो गया| रमेश शादीशुदा है और दो बच्चों का पिता है| शारीरिक संबंध बनाने के बाद प्रिया गर्भवती हो गयी और उसने रमेश के साथ घर से भागने का तय किया| पर रमेश ने उसका साथ एक से डेढ़ महीने तक दिया, जब तक उसे प्रिया के गर्भवती होने का पता नहीं चला था| उसके बाद वो उसे छोड़कर अपने परिवार के पास लौट गया| इस दौरान प्रिया के घर वालों ने कानून की मदद से प्रिया को वापस लाने की हर कोशिश की, लेकिन जब प्रिया को कोर्ट में पेश किया गया तब जज ने भी उसी के हक़ की बात रखते हुए कहा कि ‘वो बालिग़ है और उसे अपने जीवन का फैसला करने का पूरा अधिकार है|’ नतीजतन परिवार ने अपने पैर पीछे खींच लिए| रमेश के जाने के बाद प्रिया ने अपने घर वापस लौटने का तय किया| तमाम विरोधों के बाद उसके परिवार ने उसे अपनाया, लेकिन अब उसकी हालत भी मधु की तरह है| पढ़ाई पूरी न होने की वजह से कहीं नौकरी नहीं कर सकती है और गाँव का माहौल उसके लिए पूरी तरह विपरीत है| ऐसे में वो घर की चारह्दिवारी के अंदर अपने बच्चे के साथ ज़िन्दगी काटने को मजबूर है|

हम तमाम कार्यक्रमों और अभियानों से महिला अधिकारों की बात तो कर रहे हैं, लेकिन इन सबके बीच कर्तव्य की बात को कहीं-न-कहीं नज़रअंदाज़ कर रहे हैं|

मधु और प्रिया की घटना ने मुझे एकबार फिर जेंडर, आज़ादी और सशक्तिकरण के मानक को सोचने पर मजबूर कर दिया| इसी तर्ज पर, हाल ही में, जब मैंने गाँव के एक किशोरी समर कैम्प में बतौर संयोजिका हिस्सा लिया तो उस दौरान भी मैंने दसवीं-बारहवीं में पढ़ने वाली कई किशोरियों के व्यवहार पर गौर किया, जब वे अपने से दुगुनी उम्र वाले शादीशुदा टीचर की तरफ आकर्षित हो रही थी| ऐसे में जब मैंने किशोरियों को समझाने की कोशिश की तो उन्होंने अपने अधिकारों का हवाला देते हुए कहा कि ‘दीदी कानून तो हमलोगों को अट्ठारह साल की उम्र में अपने जीवनसाथी चुनने की आज़ादी देता है|’ इसबात से मैं स्तब्ध थी| इसके बाद जब मैंने उन टीचरों से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने जेंडर और महिला आज़ादी का हवाला दिया|

और पढ़ें : सशक्त व्यक्तित्व की जिंदा मिशाल है गाँव की ये महिलाएं

ये सभी वो घटनाएँ है जिनको मैंने प्रत्यक्ष रूप में अनुभव किया है| आज जब दुनियाभर में जेंडर और महिला अधिकार-आज़ादी की बात चल रही है, ऐसे में किशोरी लड़कियों का इस तरह दिशा भ्रमित होना सीधे तौर पर उनके अधिकारों और सशक्तिकरण को प्रभावित कर रहा है| हो सकता है आप मेरी बातों से सहमत न हो और आप भी जेंडर और महिला आज़ादी के पाठ को दोहराने, उसे समझने की बात करें| लेकिन ऐसा कहने-लिखने से पहले इन पहलुओं पर जरा गौर करियेगा –

सक्रिय और संकीर्ण पितृसत्ता में नदारद ‘महिला अधिकार’

दुनियाभर में ढ़ेरों संस्थाएं महिला अधिकार पर काम करने का दावा कर रही है| लेकिन भारत जैसे देश में आज भी पितृसत्ता की पकड़ में कोई विशेष बदलाव नहीं आया है, क्योंकि इस चालाक पितृसत्ता ने बदलते वक़्त के साथ अपने रूप को भी बखूबी बदला है| जमीनी रिपोर्ट की बात करूं तो गाँव में महिलाओं को अपने अधिकार, आज़ादी और जेंडर को लेकर कोई ख़ास समझ नहीं होती है, लेकिन जिन जगहों पर कुछ संस्थाओं द्वारा इन मुद्दों पर काम किया जा रहा है| वहां किशोरियां बाकी सभी बातों को भूलकर अपने अधिकार और आज़ादी को सिर्फ मनपसन्द साथी चुनने तक ही सीमित रख पा रही है| इसके लिए हम पितृसत्ता, देशकाल, वातावरण या किसी भी चीज़ को कारण बता सकते हैं| लेकिन वास्तविकता ये है कि उत्तर भारत में पूर्वांचल के गांवों में किशोरी लड़कियों के साथ ऐसी घटनाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, जहाँ वे बालिग़ है (यानी की अपनी ज़िन्दगी से संबंधित सभी फैसलों को वैधानिक रूप से लेने योग्य) लेकिन मानसिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से पूरी तरह परिपक्व नहीं है और अधिकार के नामपर छोटी उम्र में अपने मनपसन्द साथी (जो दो पल भी उनका साथ निभाने को तैयार नहीं है) के साथ गर्भवती होकर खुद की शारीरिक और सामाजिक सुरक्षा को खतरे के घेरे में डाल रही हैं|

किशोरियां बाकी सभी बातों को भूलकर अपने अधिकार और आज़ादी को सिर्फ मनपसन्द साथी चुनने तक ही सीमित रख पा रही है|

कर्तव्य के बिना अधिकार की अधूरी बात क्यों?

हम तमाम कार्यक्रमों और अभियानों से महिला अधिकारों की बात तो कर रहे हैं, लेकिन इन सबके बीच कर्तव्य की बात को कहीं-न-कहीं नज़रअंदाज़ कर रहे हैं| जैसे- किशोरियों की सुरक्षा संबंधित कई योजनायें शुरू की गयी, लेकिन गाँव की वो लड़की जो बारह साल की पढ़ाई करने की उम्र में घर में अपना बच्चा संभाल रही है| वो स्कूल नहीं जाती और न ज्यादा घर से बाहर निकलती है| गरीब परिवार के होने के नाते उसके घर में संचार के कोई साधन उपलब्ध है, ऐसे में हम कैसे किसी योजना को उस तक पहुंचायेंगें| ऐसे में अधिकारों के नामपर लगने वाले नारे कर्तव्य की आव़ाज को पूरी तरह दबाने का काम कर रहे हैं| आज जब हम अपनी किशोरियों को अपने पसंद के साथी चुनने या फ्री सेक्स की बात समझाते है तो क्या इनसे गर्भवती होने की सही उम्र (खासकर सशक्त मानसिक और सामाजिक प्रस्थिति) के बारे में शिक्षित करते हैं? हमें ठहरकर इस पहलू पर भी सोचने की ज़रूरत है|

अधिकारों की आवाज़ से बढ़ती कुप्रथाएं

मधु और प्रिया की घटना में नतीजा ये हुआ कि अपरिपक्व उम्र में उनकी शादी की बात चलने लगी, जिसे हम बाल-विवाह (खासकर मधु के केस में) भी कह सकते है| क्योंकि उसके आगे के जीवन को सुरक्षित करने का परिवारवालों को और कोई रास्ता नहीं सूझा| भले ही अलग-अलग शहरों में तमाम शेल्टर रूम की सुविधा उपलब्ध हों, लेकिन गरीब किसान परिवार की उस तक पहुंच और समझ हमेशा न के बराबर होती है और इसके चलते बाल-विवाह, दहेज प्रथा, लड़कियों को कम पढाने का चलन और महिला-हिंसा संबंधित तमाम कुप्रथाएँ बढ़ने लगी है|

यूं तो ऐसी घटनाओं का कोई पुख्ता कानूनी रिकॉर्ड नहीं है, क्योंकि ये सब किसी हिंसा की बजाय लड़का-लड़की की आपसी सहमति से अंजाम दिया जाता है और सबसे ख़ास कि ये बात इज्जत से जुड़ी होती है| लेकिन सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात ये है कि जीवन के अहम फैसलों को लेने में  हमारे किशोर तनिक भी देरी नहीं करते हैं, जिसका भयावह परिणाम न केवल उन्हें बल्कि उनके बच्चे और उनके पूरे परिवार को भुगतना पड़ता है| इतना ही नहीं, ऐसी कई घटनाओं के बाद ये भी देखा गया है कि जिस घर की लड़की ऐसे कदम उठाती है तो उसके आसपास के घरों-गाँवों की लड़कियों पर बंदिशें और बढ़ा दी जाती है| उन्हें ज्यादा पढ़ाया नहीं जाता, न ही घर से ज्यादा बाहर जाने दिया जाता है बल्कि उनकी जल्द शादी भी कर दी जाती है|

ऐसे में ये बेहद ज़रूरी है कि हम एकबार फिर आज़ादी, अधिकार और सशक्तिकरण के अपने मानकों पर गौर करें, खासकर तब जब हम ग्रामीण परिवेश में बात करते हैं| कहीं ऐसा न हो कि वैधानिक दिखने वाले अधिकार हमारे लिए अवैधानिक कुप्रथाओं को एकबार फिर सामने ला दें| कहते हैं कोई भी बीज बोने के लिए जमीन तैयार बेहद ज़रूरी है और इसपर हुई छोटी-सी चूक हमारे समाने भयावह परिणाम लाती है, जो न केवल हमारे वर्तमान बल्कि हमारे भविष्य को भी बुरी तरह प्रभावित करती है| मैं जीवन साथी चुनने या अपनी मर्जी से संबंध बनाने के अधिकार के खिलाफ नहीं हूँ| बल्कि मैं खिलाफ हूँ उस पाठ के जो हमारे किशोर-किशोरियों को समझाये जा रहे हैं, जहाँ उन्हें शैक्षणिक, आर्थिक व मानसिक रूप से सशक्त होने की बजाय सीधे तौर पर सिर्फ साथी चुनने का पाठ सिखाया जा रहा है|

और पढ़ें : ख़ास बात : खतने की कुप्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली सालेहा पाटवाला


तस्वीर साभार : mynewnormals

Comments:

  1. Vikas Bajpai says:

    बहुत सार्थक लेख जो हमारे समाज को आइना दिखता है ।

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