संस्कृतिख़ास बात ख़ास बात : खतने की कुप्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली सालेहा पाटवाला

ख़ास बात : खतने की कुप्रथा के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली सालेहा पाटवाला

सालेहा पाटवाला एक नारीवादी है और भारत में महिलाओं के साथ होने वाली ‘खतना’ की कुप्रथा के खिलाफ सक्रिय तरीके से काम कर रही हैं|

सालेहा पाटवाला एक नारीवादी है और भारत में महिलाओं के साथ होने वाली ‘खतना’ की कुप्रथा के खिलाफ सक्रिय तरीके से काम कर रही हैं| खतना एक ऐसी प्रथा है जिसे आमतौर पर हम पुरुषों से जुड़ा हुआ मानते है| लेकिन मुस्लिम समुदाय के दाउदी बोहरा समुदाय में महिलाओं के खतना करने की कुप्रथा है, जिसके बारे में बेहद सीमित लोगों को जानकारी है| प्रस्तुत है सालेहा पाटवाला के साथ स्वाती सिंह की ख़ास बात के कुछ अंश :

स्वाती : खतना जैसी कुप्रथा के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने का फैसला आपने कब लिया? आपको कब महसूस हुआ कि इस मुद्दे पर काम करने की ज़रूरत है?

सालेहा : मैं तब सात साल की थी, जब मेरी नानी ने मेरा खतना करवाया था| वो मेरे लिए कभी न भूलने वाला डरावने सपने जैसा है| उस उम्र में मुझे ये गलत लगा था, खतने के करीब एक हफ्ते बाद जब मैंने अपनी नानी से इस बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि ‘अब तुम इस्लामिक हो गयी हो और अब तुम सही रास्ते पर चलोगी|’ इसबात ने मुझे खतने की प्रथा को स्वीकारने की मजबूत वजह दे दी थी| उस वक़्त मुझे लगा कि ऐसा सभी इंसानों के साथ किया जाता है|

इस प्रथा का कोई लाभ नहीं है बल्कि ये सीधे तौर पर हमारे मानवाधिकारों का हनन है|

तब से लेकर मास्टर्स करने तक के सफर में मुझे ये कभी गलत महसूस नहीं हुआ| शायद इसकी जिम्मेदार मेरी परवरिश भी रही, जहाँ हमेशा इसे महिमामंडित कर सही करार दिया जाता रहा| लेकिन जब मैं मास्टर्स की पढ़ाई कर रही थी, तब जेंडर पर केंद्रित के वर्कशॉप के दौरान हमलोगों को एक डॉक्यूमेंट्री दिखाई गयी और वो खतने पर केंद्रित थी| उस फिल्म में मेरे ही समुदाय के लोग इस प्रथा के खिलाफ बोल रहे थे| उस एक फिल्म ने सालों से बने मेरे नजरिए को पूरी तरीके से बदल दिया और मैं खुद को अपने परिवार से ठगा हुआ-सा महसूस करने लगी| इसके बाद मैंने सोशल मीडिया के ज़रिए फिल्म बनाने वाले उस पूरी टीम से संपर्क किया और तय किया कि अब मुझे इसके खिलाफ काम करना है| क्योंकि मैं समझ चुकी थी कि इस प्रथा का कोई लाभ नहीं है बल्कि ये सीधे तौर पर हमारे मानवाधिकारों का हनन है|

स्वाती : आप खुद भी इस कुप्रथा का शिकार रह चुकी हैं, क्या आप इससे जुड़े अपने व्यक्तिगत अनुभव साझा करना चाहेंगीं कि किस तरह इस प्रथा ने आपको शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रभावित किया?

सालेहा : हमारे समुदाय में छह-सात साल तक की उम्र की लड़कियों का खतना किया जाता है और उन्हें कभी भी इसके बारे में बताया नहीं जाता है| उन्हें खाने का या खिलौने का लालच देकर खतना किया जाता है| सात साल की उम्र में मेरा खतना हुआ था और ये मुझे बेहद अच्छी तरीके से याद है| नानी ने मुझे एक समारोह के बारे में बताया जहाँ कई सारे बच्चे आने वाले थे| उन्होंने बताया कि मैं वहां नये दोस्त बना पाऊँगी| उस वक़्त मेरे ज्यादा दोस्त नहीं थे, इसलिए मैं बेहद ज्यादा इच्छुक थी नये बच्चों के मिलने के लिए| उस समय खतना किसी प्रशिक्षित व्यक्ति की बजाय गाँव की दाईयों से करवाया जाता था| नानी मुझे एक अँधेरे कमरे में लेकर गयी और वहां एक औरत ने नानी के साथ मिलकर मुझे जमीन पर ज़बरदस्ती लिटा दिया| उन्होंने मेरे हाथ-पांव को मजबूती से जकड़कर मेरे पैर फैला दिए| तभी एक बूढी महिला मेरे पास और उसके हाथ में ब्लेड था| उसने मेरे पैंटी नीचे और मेरे दोनों टांगों के बीच के किसी अंग को काट दिया| मैं दर्द से चीख पड़ी और मेरी नानी औरतों के साथ मिलकर एक-दूसरे को बधाई देने लगी| इतने सालों बाद भी जब भी मैं इस घटना का जिक्र करती हूँ तो मेरी रूंह काँप जाती है| इस प्रथा ने न केवल मुझे शारीरिक तौर पर बल्कि मानसिक तौर पर भी बुरी तरह प्रभावित किया है|

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स्वाती : खतना के मुद्दे पर आप पिछले कई सालों से काम कर रही हैं, कृपया अपने काम के बारे में बताएं?

सालेहा : साल 2015 में मैंने मास्टर्स के दौरान खतना पर बनी वो डॉक्यूमेंट्री फिल्म देखी थी उसके बाद से ही मैं सक्रिय तरीके से इस मुद्दे पर जुड़कर काम करने लगी| मैंने अपनी शुरुआत सहयोग संस्था में इस मुद्दे पर अपने लेखन से की| इसके बाद जब मैंने प्रिंट मीडिया में काम करना शुरू किया तो उस दौरान भी मैंने इस प्रथा पर केंद्रित लेख लिखना शुरू किया| मौजूदा समय में मैं वी स्पीक आउट और हैदराबाद की संस्था वोइस फॉर गर्ल्स नामक समूह के साथ खतने के खिलाफ काम कर रही हूँ|

ज़रूरी है कि हम सभी मिलकर इस कुप्रथा के खिलाफ अंधविश्वासों से परे तर्कों के आधार पर अपनी आवाज़ बुलंद करें, क्योंकि आपका बोलना ही अपने आप में एक बड़े बदलाव का आग़ाज है|

स्वाती : आप अपने अभियान के बारे में कुछ बताएं? अभियान के तहत इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए आप कौन-कौन से प्रयास कर रहे हैं?

सालेहा : फिलहाल मैं अलग-अलग संस्थाओं से जुड़कर इस मुद्दे पर काम कर रही हूँ| इसके साथ ही, इस मुद्दे पर याचिका दायर करने की भी योजना है और मैं किशोरियों को इस कुप्रथा के बारे में जागरूक करने की दिशा में काम कर रही हूँ, जिससे वो मेरी तरह इस का शिकार होने से बचे और इसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करें|

स्वाती : आप खुद भी दाउदी बोहरा समुदाय से है, ऐसे में आपके रिश्तेदार या जान-पहचान वालों की क्या प्रतिक्रिया रही है आपके इस काम को लेकर?

सालेहा : बोहरा समुदाय को सबसे संभ्रान्त समुदाय में से एक है, जो बेहद प्रगतिशील भी माने जाते हैं| लेकिन ऐसे समुदाय में इसतरह की कुप्रथा का होना मुझे हमेशा चिंतित करता है| मैं खुद भी बोहरा समुदाय से हूँ और मुझे अच्छी तरह याद है कि जब मैंने खतना की कुप्रथा के बारे में बोलना शुरू किया था| तब अपने एक फैमिली ग्रुप में मैंने इस मुद्दे पर बात शुरू की| ग्रुप में कुल बारह सदस्य थे, जिनमें से एक या दो ही सिर्फ मेरी तरफ थे, बाकी सभी मेरे खिलाफ थे| ऐसा लग रहा था कि इस बात के जिक्र ने मुझे पलभर में अपने रिश्तेदारों से दूर कर दिया हो| मेरे चचेरे भाई ने मुझे यहाँ तक कह दिया कि ‘तुम इसके खिलाफ बोल रही हो न| देखना मैं बेटी पैदा करूँगा और उसका खतना तुम्हारी आँखों के सामने करवाऊंगा|’ उसके इन अल्फाज़ों से मैं स्तब्ध थी तो इस तरह खतने के खिलाफ बोलने पर मुझे अपने रिश्तेदार या जान-पहचान वालों से कोई सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिली|

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स्वाती : आप समाज को क्या संदेश देना चाहेंगीं? 

सालेहा : कहते हैं कि जुर्म करने वाले के बराबर ही जुर्म सहने वाला भी अपराधी होता है| इसी तर्ज पर सबसे पहले मैं बोहरा समुदाय की महिलाओं से यह कहना चाहूँगीं कि आप इस बात को समझें कि खतना जैसी हिंसात्मक प्रथा आपके लिए किसी भी तरीके से फायदेमंद नहीं है बल्कि इसके विपरीत ये आपके मानवाधिकारों का हनन है और इसके लिए ज़रूरी है कि हम सभी मिलकर इस कुप्रथा के खिलाफ अंधविश्वासों से परे तर्कों के आधार पर अपनी आवाज़ बुलंद करें, क्योंकि आपका बोलना ही अपने आप में एक बड़े बदलाव का आग़ाज है| बस शर्त ये है कि विरोध की आवाज़ बुलंद स्वर में दर्ज हो|


तस्वीर साभार : फेसबुक

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